Thursday, March 17, 2011

लुत्फ़ वो इश्क में पाए है की जी जानता है


लुत्फ़ वो इश्क में पाए है की जी जानता है
रंज भी इतने उठाये है किओ जी जानता है
जो ज़माने के सितम है वो ज़माना जाने
तूने दिल इतने दुखाये है की जी जानता है
तुम नही जानते अब तक ये तुम्हारे अंदाज़
वो मेरे दिल में समाये है की जी जानता है
इन्ही क़दमो ने तुम्हारे इन्ही क़दमो की क़सम
ख़ाक में इतने मिलाये है की जी जानता है
दोस्ती में तेरी दरपर्दा हमारे दुश्मन
इस क़दर अपने पराये है की जी जानता है

:  दाग देहलवी

हर बार मांगती है नया चश्म-इ-यार दिल


हर बार मांगती है नया चश्म-इ-यार दिल
इक दिल के किस तरह से बनाऊ हज़ार दिल

पूछा जो उस ने तालिब-इ-रोज़-इ-जजा है कौन
निकला मेरी ज़बान से बे-इख्तियार दिल

करते हो अहद-इ-वस्ल तो इतना रहे ख़याल
पैमान से ज़्यादा है नापायदार दिल

उस ने कहा है सब्र पडेगा रकीब का
ले और बेक़रार हुआ ई बेक़रार दिल

:  दाग देहलवी

मौज-इ-गुल, मौज-इ-सबा, मौज-इ-सहर लगती है


मौज-इ-गुल, मौज-इ-सबा, मौज-इ-सहर लगती है
सर से पा तक वो समा है की नज़र लगती है
हमने हर गम सजदो इ जलाए है चिराग
अब तेरी राहगुज़र राहगुज़र लगती है
लम्हे लम्हे बसी है तेरी यादो की महक
आज की रात तो खुश्बू का सफ़र लगती है
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नही
देखना ये है की अब आग किधर लगती है
सारी दुनिया में गरीबो का लहू बहता है
हर ज़मी मुझको मेरे खून से तर लगती है
वाकया शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो "अख्तर" के दफ्तर की खबर लगती है
:जन निस्सार अख्तर

शोला हु भड़काने की गुजारिश नहीं करता
सच मूह से निकल जाता है कोशिश नहीं करता
गिरती हुई दीवार का हमदर्द हू लेकिन
ते हुए सूरज की परस्तिश नही करता
माथे के पसीने की महक आये तो देखे
वो खून मेरे जिस्म में गर्दिश नहीं करता
हमदर्दी-इ-अहबाब से डरता हू 'मुज़फ्फर'
मै ज़ख्म तो रखता हु नुमाइश नहीं करता
: मुज़फ्फर वारसी

बदला न अपने आप को जो थे वही रहे


बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो ज़हन में नाराज़गी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे

गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमे खिले है फूल वो डाली हरी रहे

-निदा फाजली

माना के मुश्त-इ-ख़ाक से बढकर नही हू


माना के मुश्त-इ-ख़ाक से बढकर नही हू मै
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नही हू मै
इंसान हू धड़कते हुए दिल पे हाथ रख
यू डूबकर न देख समुन्दर नही हू मै
चहरे पे मॉल रहा हू सियाही नसीब की
आईना हाथ में है सिकंदर नही हू मै
ग़ालिब तेरी ज़मी में लिक्खी तो है ग़ज़ल
तेरे कद-इ-सुखन के बराबर नही हू मै

-मुज़फ्फर वारसी

लोहे के पेड़ हरे होंगे


लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।

सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार, पवन को लिकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल, यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल।

आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रग्या प्रग्या पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल।

सूरज है जग का बुझा-बुझा, चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई, आलोक न इनका जगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण, दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल।

क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों में ?
मानवता का तू विप्र, गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल।

काया की कितनी धूम-धाम! दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष, मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
लेने दे जग को उसे, ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झर जाएगी, वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे तू सब के लिए जुगाता चल।

क्या अपनी उन से होड़, अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं, गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
जो चतुर चाँद का रस निचोड़ प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से जो इत्र निकाला करते हैं।
ये भी जाएँगे कभी, मगर, आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है, वैसे अब भी मुसकाता चल।

सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे, हमारी आँखों में गंगाजल है।
शूली पर चढा मसीहा को वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को छायापुर में ले जाते हैं।
भींगी चाँदनियों में जीता, जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के मन में गोधूलि बसाता चल।

यह देख नयी लीला उन की, फिर उन ने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे, भारत-सागर को लाल किया।
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, भारत की मिट्टी रोती है,
क्य हुआ कि प्यारे गाँधी की यह लाश न जिन्दा होती है?
तलवार मारती जिन्हें, बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी! यह भी कमाल दिखलाता चल।

धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छाएगी।
ज्वालामुखियों के कण्ठों में कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा, फूलों से भरा भुवन होगा।
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

कवि: सुदर्शन फकिर

कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड दिया
और कुछ तल्खी-इ-हालात ने दिल तोड दिया
हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड दिया
दिल तो रोता रहे, और आख से आसू न बहे
इश्क की ऎसी रवायात ने दिल तोड दिया
वो मेरे है, मुझे मिल जायेंगे, आ जायेंगे
ऐसे बेकार खयालात ने दिल तोड दिया
आप को प्यार है मुझ से के नही है मुझ से
जाने क्यों ऐसे सवालात ने दिल तोड दिया

कवि: सुदर्शन फकिर



इश्क में गैरत-इ-जज़बात ने रोने न दिया
वर्ना क्या बात थी किस बात ने रोने न दीया
आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आप की इस बात ने रोने न दीया
रोनेवालो से कह दो उनका भी रोना रोले
जिनको मजबूरी-इ-हालात ने रोने न दीया
तुझसे मिलकर हमें रोना था बहोत रोना था
तंगी-इ-वक़्त-इ-मुलाक़ात ने रोने न दीया
एक दो रोज़ का सदमा हो तो रो ले 'फकिर'
हम को हर रोज़ के सदमात ने रोने न दीया

सोचा नही अच्छा बुरा देखा सूना कुछ भी नही : बशीर बद्र





सोचा नही अच्छा बुरा देखा सूना कुछ भी नही
माँगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नही
देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी खता मेरी वफ़ा तेरी खता कुछ भी नही
जिस पर हमारी आख ने मोती बिछाए रात भर
भेजा वही कागज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नही
इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आखो से की बाते बहुत मूह से कहा कुछ भी नही
दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जाएगा
जब आग पर कागज़ रखा बाक़ी बचा कुछ भी नही
अहसास की खुश्बू कहा, आवाज़ के जुगनू कहा
खामोश यादो के सिवा, घर में रहा कुछ भी नही

कवि:मीना कुमारी 'नाज़'

आगाज़ तो होता है अंजाम नही होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नही होता


जब ज़ुल्फ़ की कालिख में घुल जाए कोई रही
बादनाम सही लेकिन गमनाम नही होता

हस हस के जावा दिल के हम क्यों न चुने तुकडे
हर शख्स की किस्मत में  इनाम नहीं होता

बहते हुए आसू ने आखो से कहा थम कर
जो मई से पिघल जाए वो जाम नही होता

दिन दूबे है या डूबी बरात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता

कवि: रामधारी सिंह "दिनकर"

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे
कहो कहाँ कब हारा?

क्षमाशील हो ॠपु-सक्षम
तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल है
उसका क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत सरल है

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे प्यारे

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से

सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की
बंधा मूढ़ बन्धन में

सच पूछो तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसीका
जिसमे शक्ति विजय की

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है