Wednesday, July 27, 2011

त'अर्रुफ़ : मजाज़ लखनवी


ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं|
जिन्स-ए-उल्फ़त का तलबग़ार हूँ मैं|

इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी,
फ़ितना-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं|

छेड़ती है जिसे मिज़राब-ए-अलम,
साज़-ए-फ़ितरत का वही तार हूँ मैं|

ऐब जो हाफ़िज़-ओ-ख़य्याम में था,
हाँ कुछ इस का भी गुनहगार हूँ मैं|

ज़िन्दगी क्या है गुनाह-ए-आदम,
ज़िन्दगी है तो गुनहगार हूँ मैं|

मेरी बातों में मसीहाई है,
लोग कहते हैं कि बीमार हूँ मैं|

एक लपकता हुआ शोला हूँ मैं,
एक चलती हुई तलवार हूँ मैं|

Tuesday, July 26, 2011

साथ चलते आ रहे हैं पास आ सकते नहीं : बशीर बद्र


साथ चलते आ रहे हैं पास आ सकते नहीं
इक नदी के दो किनारों को मिला सकते नहीं

देने वाले ने दिया सब कुछ अजब अंदाज से
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं

इस की भी मजबूरियाँ हैं, मेरी भी मजबूरियाँ हैं
रोज मिलते हैं मगर घर में बता सकते नहीं

आदमी क्या है गुजरते वक्त की तसवीर है
जाने वाले को सदा देकर बुला सकते नहीं

किस ने किस का नाम ईंट पे लिखा है खून से
इश्तिहारों से ये दीवारें छुपा सकते नहीं

उस की यादों से महकने लगता है सारा बदन
प्यार की खुशबू को सीने में छुपा सकते नहीं

राज जब सीने से बाहर हो गया अपना कहाँ
रेत पे बिखरे हुए आँसू उठा सकते नहीं

शहर में रहते हुए हमको जमाना हो गया
कौन रहता है कहाँ कुछ भी बता सकते नहीं

पत्थरों के बर्तनों में आँसू को क्या रखें
फूल को लफ्जों के गमलों में खिला सकते नहीं

Sunday, July 24, 2011

सौ बार चमन महका सौ बार बहार आई : सूफी गुलाम मुस्तफा तबस्सुम


सौ बार चमन महका सौ बार बहार आई
दुनिया की वही रौनक दिल की वही तन्हाई

हर दर्द-इ-मुहब्बत से उलझा है गम-इ-हस्ती
क्या क्या हमें याद आया जब याद तेरी आई

देखे है बहुत हम ने हंगामे मुहब्बत के
आगाज़ भी रुसवाई अंजाम भी रुसवाई


ये बज़्म-इ-मुहब्बत है इस बज़्म-इ-मुहब्बत में
दीवाने भी सौदाई फर्जाने भी सौदाई

दिल जलेगा तो ज़माने में उजाला होगा : प्रेम वार्बर्तोनी


दिल जलेगा तो ज़माने में उजाला होगा
हुस्न ज़र्रो का सितारों से निराला होगा

कौन जाने ये मोहब्बत की सज़ा है के सिला
हम किनारे पे भी पहुंचे तो किनारा न मिला
बुझ गया चाँद किसी दर्द भरे दिल की तरह
रात का रंग अभी और भी काला होगा

देखना रोयेगी फ़रियाद करेगी दुनिया
हम न होंगे तो हमें याद करेगी दुनिया
अपने जीने की अदा भी अनोखी सब से
अपने मरने का भी अंदाज़ निराला होगा

न सोचा न समझा न सीखा न जाना : मीर तक़ी 'मीर'


न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया ख़ुदबख़ुद दिल लगाना
ज़रा देख कर अपना जल्वा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाये ज़माना
ज़ुबाँ पर लगी हैं वफ़ाओं कि मुहरें
ख़मोशी मेरी कह रही है फ़साना
गुलों तक लगायी तो आसाँ है लेकिन
है दुशवार काँटों से दामन बचाना
करो लाख तुम मातम-ए-नौजवानी
प 'मीर' अब नहीं आयेगा वोह ज़माना

Thursday, July 21, 2011

मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं : बशीर बद्र


मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
हाये मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैं

हम अभी तक हैं गिरफ़्तार-ए-मुहब्बत यारो
ठोकरें खा के सुना था कि सम्भल जाते हैं

ये कभी अपनी जफ़ा पर न हुआ शर्मिन्दा
हम समझते रहे पत्थर भी पिघल जाते हैं

उम्र भर जिनकी वफ़ाओं पे भरोसा कीजे
वक़्त पड़ने पे वही लोग बदल जाते हैं

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता: बशीर बद्र


परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता
हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता
कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो : बशीर बद्र


कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो

मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब है चांदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँखों में पिछली रात की चांदनी
न बुझे ख़राबे की रोशनी, कभी बेचिराग़ ये घर न हो

वो फ़िराक़ हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो

कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिल-ओ-जाँ से दोनों क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में न क़ैद कर जहाँ ज़िन्दगी की हवा न हो

कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कोई डर न हो

यूँ ही बेसबब न फिरा करो : बशीर बद्र


यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो

कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो

ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो

नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो

Monday, July 11, 2011

कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो / अहमद फ़राज़

कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चालो

तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो

नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं
बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो

ये एक शब की मुलाक़ात भी ग़नीमत है
किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो

अभी तो जाग रहे हैं चिराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो

तवाफ़-ए-मन्ज़िल-ए-जानाँ हमें भी करना है
"फ़राज़" तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो

इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ / अहमद फ़राज़

इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ

जनतन्त्र का जन्म / रामधारी सिंह "दिनकर"

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, 
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; 
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 

जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, 
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, 
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे 
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
 
जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, 
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" 
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?" 
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
 
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, 
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; 
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के 
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, 
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; 
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
 
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, 
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, 
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? 
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। 

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार 
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं; 
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय 
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं। 

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, 
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो 
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है, 
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। 

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख, 
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में? 
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, 
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में। 

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, 
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है; 
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 

Sunday, July 10, 2011

सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो / बशीर बद्र

सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो
दरवाज़े पे दस्तक की सदा तुम तो नहीं हो

सिमटी हुई शर्माई हुई रात की रानी
सोई हुई कलियों की हया तुम तो नहीं हो

महसूस किया तुम को तो गीली हुई पलकें
भीगे हुये मौसम की अदा तुम तो नहीं हो

इन अजनबी राहों में नहीं कोई भी मेरा
किस ने मुझे यूँ अपना कहा तुम तो नहीं हो

ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे / बशीर बद्र

ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे

ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे

हँसो आज इतना कि इस शोर में
सदा सिसकियों की सुनाई न दे

अभी तो बदन में लहू है बहुत
कलम छीन ले रोशनाई न दे

मुझे अपनी चादर से यूँ ढाँप लो
ज़मीं आसमाँ कुछ दिखाई न दे

ग़ुलामी को बरकत समझने लगें
असीरों को ऐसी रिहाई न दे

मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए
जहाँ से मदीना दिखाई न दे

मैं अश्कों से नाम-ए-मुहम्मद लिखूँ
क़लम छीन ले रोशनाई न दे

ख़ुदा ऐसे इरफ़ान का नाम है
रहे सामने और दिखाई न दे

आरज़ूएं हज़ार रखते हैं / मीर तक़ी 'मीर'

आरज़ूएं हज़ार रखते हैं
तो भी हम दिल को मार रखते हैं
बर्क़ कम हौसला है हम भी तो
दिल एक बेक़रार रखते हैं
ग़ैर है मूराद-ए-इनायत हाए
हम भी तो तुम से प्यार रखते हैं
न निगाह न पयाम न वादा
नाम को हम भी यार रखते हैं
हम से ख़ुश ज़म-ज़मा कहाँ यूँ तो
लब-ओ-लहजा हज़ार रखते हैं
छोटे दिल के हैं बुताँ मशहूर
बस यही ऐतबार रखते हैं
फिर भी करते हैं "मीर" साहिब इश्क़
हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा : निदा फ़ाज़ली

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा 
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा 

किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से 
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा 

एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे 
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा 

मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे 
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा 

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर 
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा

Saturday, July 9, 2011

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी : बशीर बद्र

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता।

तुम मेरी ज़िन्दगी हो, ये सच है,
ज़िन्दगी का मगर भरोसा क्या।

जी बहुत चाहता है सच बोलें,
क्या करें हौसला नहीं होता।

वो चाँदनी का बदन खुशबुओं का साया है,
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है।

तुम अभी शहर में क्या नए आए हो,
रुक गए राह में हादसा देख कर।

वो इत्रदान सा लहज़ा मेरे बुजुर्गों का,
रची बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुशबू। 

दास्ताँ-इ-गम-इ-दिल उनको सुनाई न गई : जिगर मोरादाबादी

दास्ताँ-इ-गम-इ-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऎसी की बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-इ-जुनू इ लेकिन
एक तेरी याद थी ऎसी की भुलाई न गई
इश्क पर कुछ न चला दीदा-इ-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो खुद उन से भी उठाई न गई

हम को किसके गम ने मारा ये कहानी फिर सही : मसरूर अनवर

हम को किसके गम ने मारा ये कहानी फिर सही
किसने तोड़ा दिल हमारा ये कहानी फिर सही
दिल के लुटाने का सबब पूछो न सब के सामने
नाम आयेगा तुम्हारा ये कहानी फिर सही
नफरतो के तीर खा कर दोस्तों के शहर में
हम ने किस किस को पुकारा ये कहानी फिर सही
क्या बताये प्यार की बाजी वफ़ा की राह में
कौन जीता कौन हारा ये कहानी फिर सही

मंजिल न दे चराग न दे हौसला तो दे : रना सहरी

मंजिल न दे चराग न दे हौसला तो दे
तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे

मै ने ये कब कहा के मेरे हक में हो जवाब
लेकिन खामोश क्यू है टू कोई फैसला तो दे

बरसों मई तेरे नाम पे खाता रहा फरेब
मेरे खुदा कहा है टू अपना पता तो दे

बेशक मेरे नसीब पे रख अपना इख्तियार
लेकिन मेरे नसीब में क्या है बता तो दे

Tuesday, July 5, 2011

न किसी की आँख का नूर हू न किसी के दिल का करार हू - बहादुर शाह ज़फर


न किसी की आँख का नूर हू न किसी के दिल का करार हू
जो किसी के काम न आ सके  मै वो एक मुश्त-इ-गुबार हू

न तो  मै किसी का हबीब हू न तो  मै किसी का रकीब हू
जो बिगड़ गया वो नसीब हू जो उजाड़ गया वो दयार हू

मेरा रंग-रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझ से बिछाद गया
जो चमन फिजा में उजाड़ गया मई उसी की फसल-इ-बहार हू

पाए फातेहा कोई आये क्यू कोई चार फूल चदाये क्यू
कोई आके शम्मा जलाए क्यू  मै वो बेकसी का मज़ार हू

 मै नही हू नगमा-इ-जा_फिशा मुझे सुन के को_ई करेगा क्या
 मै बड़े बरोग की हू सदा मैं बड़े दुःख की पुकार हू

अब तो उठ सकता नही आँखों से बार-ऐ-इंतज़ार- हसरत मोहनी

अब तो उठ सकता नही आँखों से बार-ऐ-इंतज़ार
किस तरह काटे कोई लेल-ओ-नहार-ऐ-इंतज़ार

उन की उल्फत का यकी हो उन के आने की उम्मीद
हो ये दोनों सूरते तब है बहार-ऐ-इंतज़ार

मेरी आहे ना_रसा मेरी दुआए ना_कुबूल
या इलाही क्या करू मई शर्म_सार-ऐ-इंतज़ार

उन के ख़त की आरजू है उन के आमद का ख़याल
किस क़दर फैला हुआ है कारोबार-इ-इंतज़ार

Saturday, July 2, 2011

अश्क आँखों में कब नही आता : मीर ताकी मीर


अश्क आँखों में कब नही आता
लहू आता है जब नही आता
होश जाता नही रहा लेकिन
जब वो आता है तब नही आता
दिल से रुखसत हुई कोई ख्वाहिश
गिरिया कुछ बे-सबब नही आता
इश्क का हौसला है शर्त वरना
बात का किस को दहब नही आता
जी में क्या-क्या है अपने ऐ हमदम
हर सुखन टा बा-लैब नही आता

Tuesday, April 5, 2011

हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन :अटल बिहारी वाजपेयी


हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मै शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार क्षार
डमरू की वह प्रलयध्वनि हूं जिसमे नचता भीषण संहार
रणचंडी की अतृप्त प्यास मै दुर्गा का उन्मत्त हास
मै यम की प्रलयंकर पुकार जलते मरघट का धुँवाधार
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती मे आग लगा दूं मै
यदि धधक उठे जल थल अंबर जड चेतन तो कैसा विस्मय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मै आज पुरुष निर्भयता का वरदान लिये आया भूपर
पय पीकर सब मरते आए मै अमर हुवा लो विष पीकर
अधरोंकी प्यास बुझाई है मैने पीकर वह आग प्रखर
हो जाती दुनिया भस्मसात जिसको पल भर मे ही छूकर
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारंभ किया मेरा पूजन
मै नर नारायण नीलकण्ठ बन गया न इसमे कुछ संशय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मै अखिल विश्व का गुरु महान देता विद्या का अमर दान
मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग मैने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान
मेरे वेदों का ज्ञान अमर मेरे वेदों की ज्योति प्रखर
मानव के मन का अंधकार क्या कभी सामने सकठका सेहर
मेरा स्वर्णभ मे गेहर गेहेर सागर के जल मे चेहेर चेहेर
इस कोने से उस कोने तक कर सकता जगती सौरभ मै
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मै तेजःपुन्ज तम लीन जगत मे फैलाया मैने प्रकाश
जगती का रच करके विनाश कब चाहा है निज का विकास
शरणागत की रक्षा की है मैने अपना जीवन देकर
विश्वास नही यदि आता तो साक्षी है इतिहास अमर
यदि आज देहलि के खण्डहर सदियोंकी निद्रा से जगकर
गुंजार उठे उनके स्वर से हिन्दु की जय तो क्या विस्मय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
दुनिया के वीराने पथ पर जब जब नर ने खाई ठोकर
दो आँसू शेष बचा पाया जब जब मानव सब कुछ खोकर
मै आया तभि द्रवित होकर मै आया ज्ञान दीप लेकर
भूला भटका मानव पथ पर चल निकला सोते से जगकर
पथ के आवर्तोंसे थककर जो बैठ गया आधे पथ पर
उस नर को राह दिखाना ही मेरा सदैव का दृढनिश्चय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मैने छाती का लहु पिला पाले विदेश के सुजित लाल
मुझको मानव मे भेद नही मेरा अन्तःस्थल वर विशाल
जग से ठुकराए लोगोंको लो मेरे घर का खुला द्वार
अपना सब कुछ हूं लुटा चुका पर अक्षय है धनागार
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयोंका वह राज मुकुट
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरिट तो क्या विस्मय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मै वीरपुत्र मेरि जननी के जगती मे जौहर अपार
अकबर के पुत्रोंसे पूछो क्या याद उन्हे मीना बझार
क्या याद उन्हे चित्तोड दुर्ग मे जलनेवाली आग प्रखर
जब हाय सहस्त्रो माताए तिल तिल कर जल कर हो गई अमर
वह बुझनेवाली आग नही रग रग मे उसे समाए हूं
यदि कभि अचानक फूट पडे विप्लव लेकर तो क्या विस्मय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम
गोपाल राम के नामोंपर कब मैने अत्याचार किया
कब दुनिया को हिन्दु करने घर घर मे नरसंहार किया
कोई बतलाए काबुल मे जाकर कितनी मस्जिद तोडी
भूभाग नही शत शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मै एक बिन्दु परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दु समाज
मेरा इसका संबन्ध अमर मै व्यक्ति और यह है समाज
इससे मैने पाया तन मन इससे मैने पाया जीवन
मेरा तो बस कर्तव्य यही कर दू सब कुछ इसके अर्पण
मै तो समाज की थाति हूं मै तो समाज का हूं सेवक
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥

Monday, April 4, 2011

क्या भला मुझको परखने के नतीजा निकला : मुज़फ्फर वारसी


क्या भला मुझको परखने के नतीजा निकला
ज़ख्म-इ-दिल आप की नज़रो से भी गहरा निकला

तोड़कर देख लिया आईना-इ-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला

तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठो पर
डूब कर तेरे दरिया में मै प्यासा निकला

डरते है चश्म-ओ-ज़ुल्फ़, निगाह-ओ-अदा से हम : दाग देहलवी


डरते है चश्म-ओ-ज़ुल्फ़, निगाह-ओ-अदा से हम
हर दम पनाह मांगते है हर बला से हम


माशूक जाए हूर मिले, माय बजाये आब
महशर में दो सवाल करेंगे खुदा से हम


गो हाल-इ-दिल छुपाते है पर इस को क्या करे
आते है खुद खुद नज़र इक मुबतला से हम


देखे तो पहले कौन मिटे उसकी राह में
बैठे है शर्त बाँध के हर नक्श-इ-पा से हम



Sunday, April 3, 2011

किसी रंजिश को हवा दो की मै ज़िंदा हू अभी : सुदर्शन फकिर


किसी रंजिश को हवा दो की मै ज़िंदा हू अभी
मुझ को एहसास दिला दो की मै ज़िंदा हू अभी


मेरे रुकने से मेरी साँसे भी रुक जायेंगी
फासले और बड़ा दो की मै ज़िंदा हू अभी


ज़हर पीने की तो आदत थी ज़मानेवालो
अब कोई और दवा दो की मै ज़िंदा हू अभी


चलती राहो में यू ही आँख लगी है 'फकीर'
भीड़ लोगो की हटा दो की मई ज़िंदा हू अभी



चराग-ओ-आफताब गूम, बड़ी हसीं रात थी


चराग-ओ-आफताब गूम, बड़ी हसीं रात थी
शबाब की नकाब गूम, बड़ी हसीं रात थी


मुझे पिला रहे थे वो की खुद ही शम्मा बुझ गयी
गिलास गूम शराब गूम, बड़ी हसीं रात थी


लिखा हुआ था जिस किताब में, की इश्क तो हराम है
हुई वही किताब गूम, बड़ी हसीं रात थी


लबो से लब जो मिल गए, लबो से लब जो सिल गए
सवाल गूम जवाब गूम, बड़ी हसीं रात थी

: सुदर्शन फकिर



Thursday, March 17, 2011

लुत्फ़ वो इश्क में पाए है की जी जानता है


लुत्फ़ वो इश्क में पाए है की जी जानता है
रंज भी इतने उठाये है किओ जी जानता है
जो ज़माने के सितम है वो ज़माना जाने
तूने दिल इतने दुखाये है की जी जानता है
तुम नही जानते अब तक ये तुम्हारे अंदाज़
वो मेरे दिल में समाये है की जी जानता है
इन्ही क़दमो ने तुम्हारे इन्ही क़दमो की क़सम
ख़ाक में इतने मिलाये है की जी जानता है
दोस्ती में तेरी दरपर्दा हमारे दुश्मन
इस क़दर अपने पराये है की जी जानता है

:  दाग देहलवी

हर बार मांगती है नया चश्म-इ-यार दिल


हर बार मांगती है नया चश्म-इ-यार दिल
इक दिल के किस तरह से बनाऊ हज़ार दिल

पूछा जो उस ने तालिब-इ-रोज़-इ-जजा है कौन
निकला मेरी ज़बान से बे-इख्तियार दिल

करते हो अहद-इ-वस्ल तो इतना रहे ख़याल
पैमान से ज़्यादा है नापायदार दिल

उस ने कहा है सब्र पडेगा रकीब का
ले और बेक़रार हुआ ई बेक़रार दिल

:  दाग देहलवी

मौज-इ-गुल, मौज-इ-सबा, मौज-इ-सहर लगती है


मौज-इ-गुल, मौज-इ-सबा, मौज-इ-सहर लगती है
सर से पा तक वो समा है की नज़र लगती है
हमने हर गम सजदो इ जलाए है चिराग
अब तेरी राहगुज़र राहगुज़र लगती है
लम्हे लम्हे बसी है तेरी यादो की महक
आज की रात तो खुश्बू का सफ़र लगती है
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नही
देखना ये है की अब आग किधर लगती है
सारी दुनिया में गरीबो का लहू बहता है
हर ज़मी मुझको मेरे खून से तर लगती है
वाकया शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो "अख्तर" के दफ्तर की खबर लगती है
:जन निस्सार अख्तर

शोला हु भड़काने की गुजारिश नहीं करता
सच मूह से निकल जाता है कोशिश नहीं करता
गिरती हुई दीवार का हमदर्द हू लेकिन
ते हुए सूरज की परस्तिश नही करता
माथे के पसीने की महक आये तो देखे
वो खून मेरे जिस्म में गर्दिश नहीं करता
हमदर्दी-इ-अहबाब से डरता हू 'मुज़फ्फर'
मै ज़ख्म तो रखता हु नुमाइश नहीं करता
: मुज़फ्फर वारसी

बदला न अपने आप को जो थे वही रहे


बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो ज़हन में नाराज़गी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे

गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमे खिले है फूल वो डाली हरी रहे

-निदा फाजली

माना के मुश्त-इ-ख़ाक से बढकर नही हू


माना के मुश्त-इ-ख़ाक से बढकर नही हू मै
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नही हू मै
इंसान हू धड़कते हुए दिल पे हाथ रख
यू डूबकर न देख समुन्दर नही हू मै
चहरे पे मॉल रहा हू सियाही नसीब की
आईना हाथ में है सिकंदर नही हू मै
ग़ालिब तेरी ज़मी में लिक्खी तो है ग़ज़ल
तेरे कद-इ-सुखन के बराबर नही हू मै

-मुज़फ्फर वारसी

लोहे के पेड़ हरे होंगे


लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।

सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार, पवन को लिकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल, यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल।

आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रग्या प्रग्या पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल।

सूरज है जग का बुझा-बुझा, चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई, आलोक न इनका जगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण, दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल।

क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों में ?
मानवता का तू विप्र, गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल।

काया की कितनी धूम-धाम! दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष, मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
लेने दे जग को उसे, ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झर जाएगी, वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे तू सब के लिए जुगाता चल।

क्या अपनी उन से होड़, अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं, गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
जो चतुर चाँद का रस निचोड़ प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से जो इत्र निकाला करते हैं।
ये भी जाएँगे कभी, मगर, आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है, वैसे अब भी मुसकाता चल।

सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे, हमारी आँखों में गंगाजल है।
शूली पर चढा मसीहा को वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को छायापुर में ले जाते हैं।
भींगी चाँदनियों में जीता, जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के मन में गोधूलि बसाता चल।

यह देख नयी लीला उन की, फिर उन ने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे, भारत-सागर को लाल किया।
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, भारत की मिट्टी रोती है,
क्य हुआ कि प्यारे गाँधी की यह लाश न जिन्दा होती है?
तलवार मारती जिन्हें, बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी! यह भी कमाल दिखलाता चल।

धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छाएगी।
ज्वालामुखियों के कण्ठों में कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा, फूलों से भरा भुवन होगा।
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

कवि: सुदर्शन फकिर

कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड दिया
और कुछ तल्खी-इ-हालात ने दिल तोड दिया
हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड दिया
दिल तो रोता रहे, और आख से आसू न बहे
इश्क की ऎसी रवायात ने दिल तोड दिया
वो मेरे है, मुझे मिल जायेंगे, आ जायेंगे
ऐसे बेकार खयालात ने दिल तोड दिया
आप को प्यार है मुझ से के नही है मुझ से
जाने क्यों ऐसे सवालात ने दिल तोड दिया

कवि: सुदर्शन फकिर



इश्क में गैरत-इ-जज़बात ने रोने न दिया
वर्ना क्या बात थी किस बात ने रोने न दीया
आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आप की इस बात ने रोने न दीया
रोनेवालो से कह दो उनका भी रोना रोले
जिनको मजबूरी-इ-हालात ने रोने न दीया
तुझसे मिलकर हमें रोना था बहोत रोना था
तंगी-इ-वक़्त-इ-मुलाक़ात ने रोने न दीया
एक दो रोज़ का सदमा हो तो रो ले 'फकिर'
हम को हर रोज़ के सदमात ने रोने न दीया

सोचा नही अच्छा बुरा देखा सूना कुछ भी नही : बशीर बद्र





सोचा नही अच्छा बुरा देखा सूना कुछ भी नही
माँगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नही
देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी खता मेरी वफ़ा तेरी खता कुछ भी नही
जिस पर हमारी आख ने मोती बिछाए रात भर
भेजा वही कागज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नही
इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आखो से की बाते बहुत मूह से कहा कुछ भी नही
दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जाएगा
जब आग पर कागज़ रखा बाक़ी बचा कुछ भी नही
अहसास की खुश्बू कहा, आवाज़ के जुगनू कहा
खामोश यादो के सिवा, घर में रहा कुछ भी नही

कवि:मीना कुमारी 'नाज़'

आगाज़ तो होता है अंजाम नही होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नही होता


जब ज़ुल्फ़ की कालिख में घुल जाए कोई रही
बादनाम सही लेकिन गमनाम नही होता

हस हस के जावा दिल के हम क्यों न चुने तुकडे
हर शख्स की किस्मत में  इनाम नहीं होता

बहते हुए आसू ने आखो से कहा थम कर
जो मई से पिघल जाए वो जाम नही होता

दिन दूबे है या डूबी बरात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता

कवि: रामधारी सिंह "दिनकर"

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे
कहो कहाँ कब हारा?

क्षमाशील हो ॠपु-सक्षम
तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल है
उसका क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत सरल है

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे प्यारे

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से

सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की
बंधा मूढ़ बन्धन में

सच पूछो तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसीका
जिसमे शक्ति विजय की

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है